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सपा में सभी का स्वागत लेकिन ओवैसी के लिये दरवाजे बंद

Nov 24, 2021
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  • केवल मुस्लिमों वोटों के बल पर यूपी फतह नहीं हो सकता
  • अल्पसंख्यकों की राजनीतिक के दिन अब गये
  • बहुसंख्यक की राजनीति ने ही भाजपा को सिरमौर बनाया
  • ओवैसी को साथ लेंगे को होगा वोटों का ध्रवीकरण,जो सपा नहीं चाहती
  • उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के लिये सभी राजनीतिक दल अपने दांव पर दांव चले जा रही हैं। भाजपा को हराने के लिये तमाम दलों के साथ गठबंधन की जद्दोजहद के बीच आज आम आदमी पार्टी के यूपी प्रभारी संजय सिंह ने अखिलेश यादव से मुलाकात कर नये गठबंधन की संभावनाओं को हवा दे दी है। सपा के साथ रालोद मुखिया जयंत चौधरी बीते दिवस बैठक कर चुके हैं। इस बैठक में सीटों के बटवारे पर पर खुल कर चर्चा हुई है। बताया जा रहा है कि समाजवादी पार्टी रालोद के 30 से 32 तक सीटे देने के लिये तैयार है जबकि रालोद ने पचास की मांग की है। इन तमाम प्रयासों के बीच समाजवादी पार्टी के सुप्रोमो ने एक बड़ा दांव खेलते हुए असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्ताहादुल मुस्लिमीन पार्टी के लिए गठबंधन के दरवाजे बंद कर दिए हैं। इस दांव से उन सभी की जुबान पर अखिलेश ने ताला लगाने का काम किया है जो ओवैसी को सपा से जोड़ कर देखते और बताते चले आ रहे थे। इस क्रम में यह भी एक तथ्य है कि ओवैसी को भाजपा का एजेंट तक राजनीतिक गलियारे मे बताया जाता है।

इसी क्रम में, सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव साफ कर चुके हैं कि असदुद्दीन ओवैसी के साथ किसी तरह का कोई गठबंधन नहीं होगा। इससे साफ जाहिर है कि अखिलेश किसी भी सूरत में ओवैसी से हाथ मिलाने को तैयार नहीं हैं जबकि छोटे दलों के साथ लगातार सपा हाथ मिला रही है। यूपी में अभी तक सपा का रालोद, भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी, महान दल और जनवादी पार्टी के साथ गठबंधन तय है।

वहीं, अब आम आदमी पार्टी और अपना दल के साथ अखिलेश यादव गठबंधन की बातचीत शुरू कर दी है। अपना दल की अध्यक्ष कृष्णा पटेल और आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने बुधवार को अखिलेश यादव से लखनऊ में मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद संजय सिंह ने कहा कि उत्तर प्रदेश की सत्ता से भाजपा को हटाने की रणनीति पर हम काम कर रहे हैं। इस संबंध में अखिलेश यादव से बातचीत हुई है, जिसमें बीजेपी के खिलाफ न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर चर्चा हुई है। अखिलेश यादव यूपी में भाजपा के खिलाफ अंब्रेला गठबंधन बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं, जिसके लिए तमाम दलों के साथ बातचीत कर रहे हैं। हमारी बात अभी सपा से शुरू हुई है और जल्द ही इस दिशा में कोई फैसला किया जाएगा।

यहां एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि आखिर ओवैसी से गठबंधन करने से सपा क्यों कतरा रही है। कारण साफ है ओवैसी को सपा के साथ लेकर सपा भाजपा को ध्रुवीकरण का मौका नहीं देना चाहती। सपा अगर ओवैसी के साथ मैदान में उतरती तो उन पर भी मुस्लिम परस्त और कट्टरपंथी पार्टी के साथ खड़े होने का आरोप लगेगा। यही कारण है कि ओवैसी के साथ बिहार और पश्चिम बंगाल के बाद अब यूपी के विपक्षी दल भी हाथ मिलाने के तैयार नहीं हैं। नये राजनीतिक हालात को देखते हुए अब यह भी माना जाने लगा है कि 2014 के बाद से राजनीतिक पैटर्न बदल गया है। देश में अब बहुसंख्यक समाज केंद्रित राजनीति हो गई है और इसी फॉर्मूले के बल पर भाजपा लगातार चुनाव जीत रही है। असदुद्दीन ओवैसी की छवि एक मुस्लिम परस्त नेता के तौर पर है और उनके भाषण भी इसी तरह के हैं। ऐसे में उनके साथ हाथ मिलाने से बहुसंख्यक वोटर का ध्रुवीकरण होगा।

एक बात यह भी साफ है कि यूपी में सिर्फ मुस्लिम वोटों के सहारे सरकार नहीं बनाई जा सकती है। इसीलिए सूबे का कोई भी प्रमुख दल ओवैसी की पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करना चाहता. इसके अलावा हैदराबाद से बाहर ओवैसी ने जहां भी सियासी जगह बनाई है, वहां खुद की राजनीति के दम पर नहीं बल्कि किसी न किसी दल के सहारे जीत दर्ज की है। महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर के साथ गठबंधन कर जीत दर्ज की और बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और मायावती के सहारे। ऐसे ही गुजरात में भारतीय ट्राइबल पार्टी के साथ हाथ मिलाकर पार्षद की सीटें जीते हैं, लेकिन यूपी में अब उनके लिए सभी दलों ने दरवाजे बंद कर दिए हैं।

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