तलब से बना है तालिबान
शरिया ..इस्लामिक कानून
इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान
इन दिनों हर किसी की जुबान पर सिर्फ एक ही नाम है..तालिबान। अरबी भाषा के यह शब्द तलब यानी इच्छा, चाहना, पाना, ख्वाहिश से मिलकर बना है। अफगानिस्तान पर काबिज होने के लिये तालिबान की लड़ाई पिछले बीस साल से चल रही थी। यह तालिबान की यह ख्वाहिश 15 अगस्त 2021 को पूरी हो गयी। दूसरा शब्द है इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान। तालिबान ने अफगानिस्तान पर अपना राज कायम करते ही सबसे पहले मुल्क का नाम बदलने का भी ऐलान किया। तालिबान की तरफ से कहा गया है कि अब अफगानिस्तान इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान नाम से जाना जायेगा। एमेरेट मतलब अमीरात। यह शब्द अमीर से बना है। तीसरा शब्द है शरिया। शरिया भी अरबी भाषा का लफ्ज़ है। इसका मतलब धार्मिक कानून से है। तालिबान ने ऐलान किया है कि अफगानिस्तान में इस्लामिक शरिया लागू होगा यानी ये देश अब इस्लामिक कानून के हिसाब से चलाया जाएगा।
जहां तक बात तालिबान की है तो दुनिया में इस वक्त सबसे बड़े खतरों में से एक है तालिबान। अफगानिस्तान की धरती पर 20 साल बाद एक बार फिर आतंकी संगठन तालिबान का कब्जा हो गया है। यह बात अलग है कि ये तालिबान अब बीस साल पुराना वाला नहीं है। अब इस आतंकी संगठन के पास अत्याधुनिक हथियार हैं। सैकड़ों लड़ाकू गाड़ियां हैं। लड़ाकूओं के पास साफ-सुथरी पोशाक है और अपार पैसा भी है। शायद इसी दम पर अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने में कामयाब हो गया. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कौन देता है इस आतंकी संगठन को पैसे, कहां से मिलते हैं हथियार ?
2016 फोर्ब्स की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के टॉप-10 आतंकी संगठनों में से तालिबान पांचवां सबसे अमीर दहशतगर्दी संगठन है। तालिबान का सालाना कारोबार चार सौ मिलियन अमेरिकी डॉलर है। ये आंकड़ा साल 2016 का है। यानी अब यह कारोबार चार सौ मिलियन अमेरिकी डालर से कही अधिक हो गया है। तालिबान की कमाई मुख्य रूप से गैर-कानूनी धंधों से होती है।नशीले पदार्थों की तस्करी और सुरक्षा के नाम पर पैसों की उगाही करना मुख्य सोर्स है। इसके अलावा विदेशों से दान के रूप में भी तालिबान को काफी पैसा आता है। इन्हीं पैसों से गैर कानूनी तरीके से हथियार और गोला बारूद खरीदा जाता है।फोर्ब्स की लिस्ट में आईएसआईएस पहले नंबर पर है, जिसका सालाना कारोबार 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर है।
आज तालिबान से निपटने के लिए रूस और अमेरिका जैसे देश भी भले ही परेशान हैं लेकिन असल में इसे पैदा भी रूस और अमेरिका की नीतियों ने ही किया है। दरअसल, 1992 में अफगानिस्तान के कांधार के रहने वाले मुल्ला मोहम्मद ओमर ने पचास हथियारबंद लड़कों के साथ मिलकर तालिबान बनाया था। उसका मानना था कि अफगानिस्तान में सोवियत यूनियन के दखल के बाद यहां का इस्लाम खतरे में था और मुजाहिदिनों के अलग-अलग ग्रुप्स मिलकर भी अफगानिस्तान में इस्लामिक शासन स्थापित करने में फेल हो गए थे. उसकी ये सोच अफगानिस्तान में आग की तरह फैल गई। एक महीने के अंदर ही करीब 15,000 लड़ाके तालिबान के साथ जुड़ गए। (यह भी देखिये https://www.youtube.com/watch?v=9vQLCcrJtDM&t=2s )